बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 35)

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बिल्लेसुर, जैसा लिख चुके हैं, दुख का मुँह देखते-देखते उसकी डरावनी सूरत को बार-बार चुनौती दे चुके थे। 

कभी हार नहीं खाई। 

आजकल शहरों में महात्मा गान्धी के बकरी का दूध पीने के कारण, दूध बकरी की बड़ी खपत है,

 इसलिए गाय के दूध से उसका भाव भी तेज़ है;

 मुमकिन, देहात में भी यह प्रचलन बढ़ा हो; पर बिल्लेसुर के समय सारा संसार बकरी के दूध से घृणा करता था; जो बहुत बीमार पड़ते थे, जिनके लिये गाय का दूध भी मना था, उन्हें बकरी के दूध की व्यवस्था दी जाती थी। 

बिल्लेसुर के गाँव में ऐसा एक भी मरीज़ नहीं आया। जब दूध बेचा नहीं बिका, किसी को कृपापात्र बनवाये रहने के लिए व्यवहार में देने पर मुँह बनाने लगा, तब बिल्लेसुर ने खोया बनाना शुरू किया। 

बकरी के दूध का खोया बनाने में पहले प्रकृति बाधक हुई; बकरी के दूध में पानी का हिस्सा बहुत रहता है; बड़ी लकड़ी लगानी पड़ी; बड़ी देर तक चूल्हे के किनारे बैठ रहना पड़ा; बड़ी मिहनत; पहाड़ खोदने के बाद जब चुहिया निकली––खोये का छोटा-सा गोला बना, तब मन भी छोटा पड़ गया। 

भैंस के दूध के सेर भर में पाव भर का आधा भी नहीं होता था। धीरज बाँधकर बेचने गये, भजना हलवाई जोतपुरवाले के यहाँ, वह गट्टे काट रहा था, जल्दी में उसने देखा नहीं, तोलकर दाम दे दिये; दूसरे दिन गये तो तोलकर रख लिया।

 बिल्लेसुर ने पूछा, "दाम ?" उसने कहा, "दाम कल दे चुका हूँ, मैं समझा था भैंस का खोया है, यह बकरी का खोया है, 

बकरी के खोये के आधे दाम भी बहुत हैं, मैं बकरी का खोया नहीं लेता, अब न ले आना, सारी मिठाई बरबाद हो जाती है, गाहक गाली देते हैं; न घी है, न स्वाद; जो कुछ थोड़ा-सा घी निकलता है, वह दूसरे धी में मिलाया नहीं जा सकता––कुल घी बदबू छोड़ने लगता है।"

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